यह कहानी जो हम आपको सुनाने जा रहे हैं यह हमारी लिखी हुई नहीं है। ऐसी कहानियाँ कोई लिख भी नहीं सकता। ऐसी कहानियाँ तो 'जी’ जाती हैं और उन्हें रचते हैं उनके पात्र, उन्हें गढ़ता है समय और उन्हें उगाती है जिन्दगी। फिर उन्हें शब्दों में भींच कर पाठकों के मन-पत्तल पर परोसने का काम तो कोई भी ऐरा-गैरा नत्थूखैरा कर सकता है। सुष्मिताजी एक ऐसा ही पात्र थीं, जो थीं, हुईं, और उनके होने के इर्द-गिर्द, उनके जीने के दरम्यान यह कहानी बुन गई। सुष्मिताजी की यह कहानी शुरू होती है वहाँ से जहाँ से सुष्मिताजी शुरू होती हैं और यह कहानी खत्म भी वहीं होती है जहाँ सुष्मिताजी खत्म होती हैं। इत्तेफाक देखिये, कि सुष्मिताजी के शुरू होने का किसी को पता नहीं चलता, कोई जान ही नहीं पाता कि कोई सुष्मिताजी हो गई हैं और वह अब हैं, क्योंकि सुष्मिताजी के होने पर बधावे नहीं बजते, सोहर नहीं गाये जाते, सुष्मिताजी के तमाम जी चुकने के बाद लोग जान पाते हैं कि सुष्मिताजी थीं। अच्छा, तो ये थीं सुष्मिताजी।

Full Novel

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वंश - भाग 1

प्रबोध कुमार गोविल हर उस व्यक्ति के नाम जिसे देखकर लगे कि इंसान को ऐसा ही होना एक यह कहानी जो हम आपको सुनाने जा रहे हैं यह हमारी लिखी हुई नहीं है। ऐसी कहानियाँ कोई लिख भी नहीं सकता। ऐसी कहानियाँ तो 'जी’ जाती हैं और उन्हें रचते हैं उनके पात्र, उन्हें गढ़ता है समय और उन्हें उगाती है जिन्दगी। फिर उन्हें शब्दों में भींच कर पाठकों के मन-पत्तल पर परोसने का काम तो कोई भी ऐरा-गैरा नत्थूखैरा कर सकता है। सुष्मिताजी एक ऐसा ही पात्र थीं, जो थीं, हुईं, और उनके होने के इर्द-गिर्द, ...और पढ़े

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वंश - भाग 2

दो कुछ समय बाद सुष्मिताजी का तबादला दूसरे शहर में हो गया। उन्होंने पहले कोशिश की कि वे यहीं रहें पर अंतत: उन्हें जाना ही पड़ा। जब उनका वहाँ से जाना तय हो ही गया तो उन्होंने एक बार रत्ना से विनती की कि वे नमिता को उनके साथ भेज दें। रत्ना को भला क्या एतराज होता। नमिता तो वैसे भी सुष्मिताजी से ही चिपकी रहती। रूपा अब कॉलेज में आ गयी थी और कॉलेज में आने के साथ-साथ एक परिवर्तन उसमें यह आया था कि उसे अब अपने घर का गणित उलझाने लगा था। अपने परिवार के गृह-त्रिभुज ...और पढ़े

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वंश - भाग 3

तीन उधर ट्रेन ने खिसककर प्लेटफार्म छोड़ा, इधर सीट पर पैर फैलाकर सुष्मिताजी ने टिफिन खोला। फिर न जाने सोचकर उसे बन्द करके साथ वाली टोकरी में वापस रख दिया और टोकरी में ऊपर ही ऊपर रखा कागज का वह लिफाफा उठा लिया। उस लड़के ने एक पाव कहते-कहते भी जबरन तीन सौ ग्राम आलू बुखारे भेड़ दिये थे उन्हें। मना करने पर कहता था-तीन सौ ग्राम पूरे ले लो माताजी, छुट्टा नहीं है। और 'माताजी’ उस तेरह-चौदह साल के लड़के को इस तरह देखती रह गयीं कि उन्हें यह भी याद नहीं रहा, लड़के ने उनके पाँच के ...और पढ़े

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वंश - भाग 4

चार सुष्मिताजी घर के सारे कार्य निपटाकर बत्तियाँ बुझाकर जब अपने बेडरूम में जाकर बिस्तर पर लेटीं, उस समय अनुमान था कि लेटते ही नींद आ जायेगी। लेकिन शरीर के जरा से आराम में आ जाने के बाद विचारों के जिस गुंजलक में वह घिर गईं, उसमें नींद आने की संभावना दूर-दूर तक नहीं थी। इस समय उनके विचारों का केन्द्र अपना बीता हुआ समय, वरुण सक्सेना या उनके परिवार के अन्य लोगों में से कोई और नहीं, बल्कि उनके घर के बाहरी कक्ष में सोया हुआ उनका अपरिचित युवा मेहमान सुधीर था। वे न जाने किस मोह-ममता या ...और पढ़े

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वंश - भाग 5

पाँच गर्मी की उमस भरी दोपहर थी, लेकिन गाड़ी के चलते रहने के कारण हवा भी लग रही थी। उष्णता तो नहीं ही थी। मीलों दूर तक फैले हुए पर्वतीय एवं मैदानी बीहड़ों के बाद इस लाइन पर कुछ इलाका ऐसा भी आता था जिसे न तो जंगल ही कहा जा सकता है और न पहाड़, पठार ही। आबादी बस्ती तो खैर ये है ही नहीं। हाँ बीच-बीच में इक्का-दुक्का आदिवासियों की बसाहटें बेशक दिख जाती हैं। कहीं-कहीं मुश्किल से उग पायी फसल को लिये उदास खड़े पितलिया खेत-खलिहान, पर ज़्यादातर बंजर पथरीली चट्टानों के ऊबड़-खाबड़ टीले ही। रेल ...और पढ़े

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वंश - भाग 6

छह दरवाज़े की घण्टी की आवाज़ सुनकर जब सुष्मिताजी ने दरवाज़ा खोला तो सामने का नजारा देखकर अपनी आँखों एकाएक विश्वास नहीं हुआ उन्हें। सामने वरुण सक्सेना और उनके साथ में रत्ना को खड़े पाया उन्होंने। हाथ में सूटकेस लेकर खड़े वरुण सक्सेना भी समझ नहीं पाये कि क्या बोलें। वे समझ रहे थे सुष्मिताजी की खुशी। यह क्या? यह क्या देख रही थीं सुष्मिताजी? रत्ना और वरुण उनके घर आये हैं। अकस्मात्, बिना किसी पूर्व सूचना या कार्यक्रम के। कैसा सुखद आश्चर्य! वरुण की आस-उम्मीद तो खैर जब तब बनी ही रहती थी उन्हें, और उनका आना अप्रत्याशित ...और पढ़े

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वंश - भाग 7

सात जयकुमार एक नितान्त सुनसान-सी सड़क पर चलते-चलते शहर से लगभग बाहर ही आ गये थे। रात के इस पहर में वह लौटने का विचार बना ही रहे थे कि अचानक उनका ध्यान सामने कुछ दूर तक अँधेरे में डूबी सड़क पर चला गया। कुछ दूरी पर सड़क के किनारे एक आदमी खड़ा था और उसी से कुछ फासले पर जरा आगे सड़क के किनारे एक ऑटो रिक्शा खड़ा था। ऑटो रिक्शा की दूरी इस आदमी से सम्भवत: पचास-साठ गज के फासले पर रही होगी। जयकुमार ने जेब से सिगरेट निकाली और उसे होठों से लगा लिया। फिर अपनी ...और पढ़े

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वंश - भाग 8

आठ उस दिन की गोष्ठी के बाद आयोजकों और अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के बीच सुष्मिताजी का स्वागत जिस गर्मजोशी हुआ, उससे वे पुलकित हो गईं। गिरधर, जिसने इस समारोह के लिए सुष्मिताजी पर विशेष रूप से जोर डाला था तथा 'संदर्भ समिति’ के लिए सुष्मिताजी को सदस्या के रूप में प्रस्तावित किया था, वह भी प्रफुल्लित था। सुष्मिताजी जैसे व्यक्तित्व को समिति में शामिल करने के प्रस्ताव का औचित्य सुष्मिताजी के सिद्ध कर दिये जाने के बाद वह यह अनुभव करता घूम रहा था कि उसने पदाधिकारियों पर निश्चय ही अपने चयन की बेहतरीन छाप छोड़ी है। गोष्ठी बेहद ...और पढ़े

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वंश - भाग 9

नौ मुबारकपुर में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई कि नारी-निकुंज की अधीक्षिका दिल्ली से आ हैं। यह खबर वहाँ के रहवासियों के लिए कुछ दिन पूर्व नारी-निकुंज में छापा पड़ने और 'रण्डियों’ के पकड़े जाने से भी बड़ी थी। दिल्ली से सुपरिन्टेण्डेण्ट के आने का मतलब साफ था कि दिल्ली तक उनके शहर की बदनामियों की बातें पहुँच चुकी थीं। लेकिन इस खबर के साथ ही पिछले दिनों से चल रही उन अटकलबाजियों का अंत हो गया कि सरकार इस नारी-निकुंज को बंद करने जा रही है या कि इसे यहाँ से हटाकर अन्यत्र किसी ...और पढ़े

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वंश - भाग 10

दस सुष्मिताजी अपने आवास के बाहरी कक्ष में पन्द्रह-बीस लोगों के साथ बैठी दूरदर्शन देख रही थीं। 'खोये हुए की सूचना चल रही थी। टी.वी. के पर्दे पर सामने जब एक गुमशुदा चेहरा आया तो सुष्मिताजी को एकदम बिजली का-सा झटका लगा। एक चौदह वर्षीया लड़की का फोटो था। सन्न रह गईं सुष्मिताजी। चित्र देखते ही एकाएक उसे पहचान नहीं पाईं। फिर भी वह चेहरा उन्हें अच्छी तरह से देखा हुआ लग रहा था। बहुत जोर डाला उन्होंने दिमाग पर, सोच-सोच कर परेशान-सी होने लगीं। यह मासूम और भोला-सा चेहरा कहाँ और कब देखा था उन्होंने। सुष्मिताजी आत्मकेन्द्रिता, घर-परिवार ...और पढ़े

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वंश - भाग 11 (अंतिम भाग)

ग्यारह दो-तीन बार दिल्ली फोन हो जाने के बाद भी नारी-निकुंज की अधीक्षिका सुष्मिता सिंह की बातचीत मुबारकपुर के ज्ञान स्वरूप से नहीं हो पाई, क्योंकि जब भी फोन मिला वे घर पर उपलबध नहीं थे। सन्देश बार-बार यही छोड़ा गया कि जब भी वह वापस आयें, तत्काल यहाँ संपर्क करें किन्तु इसके बावजूद दिनभर वहाँ से कोई समाचार या खोज-खबर नहीं मिली। लेकिन अगले दिन सुबह ठीक आठ बजे सुष्मिताजी को सूचना मिली कि ज्ञान स्वरूप जी मुबारकपुर में आ गये हैं और शीघ्र ही जिले के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों, पुलिस महकमे के लोगों तथा कुछ गणमान्य नागरिकों ...और पढ़े

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