श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दुओं के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने गीता का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। यह महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है। भगवत गीता में एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और जीवन की समस्यायों से लड़ने की बजाय उससे भागने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत के महानायक थे, अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गए थे, अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से विचलित होकर भाग खड़े होते हैं। भारत वर्ष के ऋषियों ने गहन विचार के पश्चात जिस ज्ञान को आत्मसात किया उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इन्हीं वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता मानव को प्राप्त बौद्धिक शक्ति है और उपनिषदों में निहित ज्ञान मानव की बौद्धिकता की उच्चतम अवस्था तो है ही, अपितु बुद्धि की सीमाओं के परे मनुष्य क्या अनुभव कर सकता है उसकी एक झलक भी दिखा देता है। श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है। गीता प्रेस गोरखपुर जैसी धार्मिक साहित्य की पुस्तकों को काफी कम मूल्य पर उपलब्ध कराने वाले प्रकाशन ने भी कई आकार में अर्थ और भाष्य के साथ श्रीमद्भगवद्गीता के प्रकाशन द्वारा इसे आम जनता तक पहुंचाने में काफी योगदान दिया है।
Full Novel
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 1
श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दुओं के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। यह महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है। भगवत गीता में एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और जीवन की समस्यायों से लड़ने की बजाय उससे भागने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत के महानायक थे, अपने ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 2
भगवत गीता ~ द्वितीय अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद संजय उवाच तं कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥2.1॥ sañjaya uvācataṅ tathā kṛpayā.viṣṭamaśrupūrṇākulēkṣaṇam.viṣīdantamidaṅ vākyamuvāca madhusūdanaḥ৷৷2.1৷৷ भावार्थ : संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥ श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥ śrī bhagavānuvācakutastvā kaśmalamidaṅ viṣamē samupasthitam.anāryajuṣṭamasvargyamakīrtikaramarjuna৷৷2.2৷৷ भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 3
भगवत गीता ~ अध्याय तीन अथ तृतीयोऽध्यायः- कर्मयोग ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने आवश्यकता अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥ arjuna uvācajyāyasī cētkarmaṇastē matā buddhirjanārdana.tatkiṅ karmaṇi ghōrē māṅ niyōjayasi kēśava৷৷3.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥ व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ vyāmiśrēṇēva vākyēna buddhiṅ mōhayasīva mē.tadēkaṅ vada niśicatya yēna śrēyō.hamāpnuyām৷৷3.2৷৷ भावार्थ : आप मिले ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 4
अध्याय चार अथ चतुर्थोऽध्यायः- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षण भगवत्स्वरूप श्री भगवानुवाच इमं योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥śrī bhagavānuvācaimaṅ vivasvatē yōgaṅ prōktavānahamavyayam.vivasvān manavē prāha manurikṣvākavē.bravīt৷৷4.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥ एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ēvaṅ paramparāprāptamimaṅ rājarṣayō viduḥ.sa kālēnēha mahatā yōgō naṣṭaḥ parantapa৷৷4.2৷৷ भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 5
अध्याय पाँच अथ पंचमोऽध्यायः- कर्मसंन्यासयोग ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोग की वरीयता उवाच सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ arjuna uvāca saṅnyāsaṅ karmaṇāṅ kṛṣṇa punaryōgaṅ ca śaṅsasi. yacchrēya ētayōrēkaṅ tanmē brūhi suniśicatam৷৷5.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिए इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिए॥1॥ श्रीभगवानुवाच सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ śrī bhagavānuvāca saṅnyāsaḥ karmayōgaśca niḥśrēyasakarāvubhau. tayōstu karmasaṅnyāsātkarmayōgō viśiṣyatē৷৷5.2৷৷ भावार्थ ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 6
अध्याय छः अथ षष्ठोऽध्यायः- आत्मसंयमयोग कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं करोति यः ।स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ śrī bhagavānuvāca anāśritaḥ karmaphalaṅ kāryaṅ karma karōti yaḥ. sa saṅnyāsī ca yōgī ca na niragnirna cākriyaḥ৷৷6.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है॥1॥ यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 7
अध्याय सात अथ सप्तमोऽध्यायः- ज्ञानविज्ञानयोग विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, इश्वर की व्यापकता श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥ śrī bhagavānuvācamayyāsaktamanāḥ pārtha yōgaṅ yuñjanmadāśrayaḥ.asaṅśayaṅ samagraṅ māṅ yathā jñāsyasi tacchṛṇu৷৷7.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥ ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ jñānaṅ tē.haṅ savijñānamidaṅ vakṣyāmyaśēṣataḥ.yajjñātvā nēha bhūyō.nyajjñātavyamavaśiṣyatē৷৷7.2৷৷ भावार्थ : मैं तेरे लिए इस ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 9
अध्याय नौ अथ नवमोऽध्यायः- राजविद्याराजगुह्ययोग परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार श्रीभगवानुवाच इदं तु ते प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥9.1॥ śrī bhagavānuvāca idaṅ tu tē guhyatamaṅ pravakṣyāmyanasūyavē. jñānaṅ vijñānasahitaṅ yajjñātvā mōkṣyasē.śubhāt৷৷9.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा॥1॥ राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥9.2॥ rājavidyā rājaguhyaṅ pavitramidamuttamam. pratyakṣāvagamaṅ dharmyaṅ susukhaṅ kartumavyayam৷৷9.2৷৷ भावार्थ : यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 10
अध्याय दस अथ दशमोऽध्याय:- विभूतियोग भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल श्रीभगवानुवाच भूय महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ৷৷10.1৷৷ śrī bhagavānuvāca bhūya ēva mahābāhō śrṛṇu mē paramaṅ vacaḥ. yattē.haṅ prīyamāṇāya vakṣyāmi hitakāmyayā৷৷10.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान् बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा॥10.1॥ न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥10.2॥ na mē viduḥ suragaṇāḥ prabhavaṅ na maharṣayaḥ. ahamādirhi dēvānāṅ ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 11
अध्याय ग्यारहअथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोगविश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना अर्जुन उवाच मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् । यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो ॥ arjuna uvāca madanugrahāya paramaṅ guhyamadhyātmasaṅjñitam. yattvayōktaṅ vacastēna mōhō.yaṅ vigatō mama৷৷11.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है॥1॥ भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ bhavāpyayau hi bhūtānāṅ śrutau vistaraśō mayā. tvattaḥ kamalapatrākṣa māhātmyamapi cāvyayam৷৷11.2৷৷ भावार्थ : क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 12
अध्याय बारह अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोगसाकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषयअर्जुन एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ arjuna uvāca ēvaṅ satatayuktā yē bhaktāstvāṅ paryupāsatē. yēcāpyakṣaramavyaktaṅ tēṣāṅ kē yōgavittamāḥ৷৷12.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥ श्रीभगवानुवाच मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 14
अध्याय चौदह अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोगज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्तिश्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् । मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१) śrī bhagavānuvāca paraṅ bhūyaḥ pravakṣyāmi jñānānāṅ jñānamuttamam. yajjñātvā munayaḥ sarvē parāṅ siddhimitō gatāḥ৷৷14.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! समस्त ज्ञानों में भी सर्वश्रेष्ठ इस परम-ज्ञान को मैं तेरे लिये फिर से कहता हूँ, जिसे जानकर सभी संत-मुनियों ने इस संसार से मुक्त होकर परम-सिद्धि को प्राप्त किया हैं। (१) इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (२) idaṅ jñānamupāśritya mama sādharmyamāgatāḥ. sargē.pi nōpajāyantē pralayē ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 15
अध्याय पंद्रह अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोगसंसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपायश्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि वेद स वेदवित् ৷৷15.1৷৷ śrī bhagavānuvāca ūrdhvamūlamadhaḥśākhamaśvatthaṅ prāhuravyayam. chandāṅsi yasya parṇāni yastaṅ vēda sa vēdavit৷৷15.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। ৷৷15.1৷৷ अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷15.2৷৷ adhaścōrdhvaṅ prasṛtāstasya śākhā guṇapravṛddhā viṣayapravālāḥ. ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 16
अध्याय सोलहअथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोगफलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥16.1॥ bhagavānuvāca abhayaṅ sattvasaṅśuddhiḥ jñānayōgavyavasthitiḥ. dānaṅ damaśca yajñaśca svādhyāyastapa ārjavam৷৷16.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति (परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिए) और सात्त्विक दान (गीता अध्याय 17 श्लोक 20 में जिसका विस्तार किया है), इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 17
अध्याय सत्रहअथ सप्तदशोऽध्यायः- श्रद्धात्रयविभागयोगश्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषयअर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेषां तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः৷৷17.1৷৷ arjuna uvāca yē śāstravidhimutsṛjya yajantē śraddhayā.nvitāḥ. tēṣāṅ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa sattvamāhō rajastamaḥ৷৷17.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी? ৷৷17.1॥ श्रीभगवानुवाच त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु৷৷17.2৷৷ śrī bhagavānuvāca trividhā bhavati śraddhā dēhināṅ sā svabhāvajā. sāttvikī rājasī caiva tāmasī cēti tāṅ śrṛṇu৷৷17.2৷৷ भावार्थ ...और पढ़े
श्रीमद् भगवद्गीता - अध्याय 18 - अंतिम
अध्याय अट्ठारहअथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोगत्याग का विषयअर्जुन उवाच सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् । त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ৷৷18.1৷৷ arjuna uvāca saṅnyāsasya tattvamicchāmi vēditum. tyāgasya ca hṛṣīkēśa pṛthakkēśiniṣūdana৷৷18.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ ৷৷18.1॥ श्रीभगवानुवाच काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ৷৷18.1৷৷ śrī bhagavānuvāca kāmyānāṅ karmaṇāṅ nyāsaṅ saṅnyāsaṅ kavayō viduḥ. sarvakarmaphalatyāgaṅ prāhustyāgaṅ vicakṣaṇāḥ৷৷18.2৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए ...और पढ़े