मेरी सारी जिन्दगी घूमने में ही बीती है। इस घुमक्कड़ जीवन के तीसरे पहर में खड़े होकर, उसके एक अध्याापक को सुनाते हुए, आज मुझे न जाने कितनी बातें याद आ रही हैं। यों घूमते-फिरते ही तो मैं बच्चे से बूढ़ा हुआ हूँ। अपने-पराए सभी के मुँह से अपने सम्बन्ध में केवल 'छि:-छि:' सुनते-सुनते मैं अपनी जिन्दगी को एक बड़ी भारी 'छि:-छि:' के सिवाय और कुछ भी नहीं समझ सका। किन्तु बहुत काल के बाद जब आज मैं कुछ याद और कुछ भूली हुई कहानी की माला गूँथने बैठा हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के उस प्रभात में ही क्यों उस सुदीर्घ 'छि:-छि:' की भूमिका अंकित हो गयी थी,

Full Novel

1

श्रीकांत - भाग 1

मेरी सारी जिन्दगी घूमने में ही बीती है। इस घुमक्कड़ जीवन के तीसरे पहर में खड़े होकर, उसके एक को सुनाते हुए, आज मुझे न जाने कितनी बातें याद आ रही हैं। यों घूमते-फिरते ही तो मैं बच्चे से बूढ़ा हुआ हूँ। अपने-पराए सभी के मुँह से अपने सम्बन्ध में केवल 'छि:-छि:' सुनते-सुनते मैं अपनी जिन्दगी को एक बड़ी भारी 'छि:-छि:' के सिवाय और कुछ भी नहीं समझ सका। किन्तु बहुत काल के बाद जब आज मैं कुछ याद और कुछ भूली हुई कहानी की माला गूँथने बैठा हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के उस प्रभात में ही क्यों उस सुदीर्घ 'छि:-छि:' की भूमिका अंकित हो गयी थी, ...और पढ़े

2

श्रीकांत - भाग 2

पैर उठते ही न थे, फिर भी किसी तरह गंगा के किनारे-किनारे चलकर सवेरे लाल ऑंखें और अत्यन्त सूखा मुँह लेकर घर पहुँचा। मानो एक समारोह-सा हो उठा। 'यह आया! यह आया!' कहकर सबके सब एक साथ एक स्वर में इस तरह अभ्यर्थना कर उठे कि मेरा हृत्पिण्ड थम जाने की तैयारी करने लगा। जतीन करीब-करीब मेरी ही उम्र का था। इसलिए आनन्द भी उसका सबसे प्रचण्ड था। वह कहीं से दौड़ता हुआ आया और 'आ गया श्रीकान्त- यह आ गया, मँझले भइया!' इस प्रकार के उन्मत्त चीत्कार से घर को फाड़ता हुआ मेरे आने की बात घोषित करने लगा और मुहूर्त भर का भी विलम्ब किये बगैर, उसने परम आदर से मेरा हाथ पकड़कर खींचते हुए मुझे बैठकखाने के पायंदाज पर ला खड़ा किया। ...और पढ़े

3

श्रीकांत - भाग 3

आज मैं अकेला जाकर मोदी के यहाँ खड़ा हो गया। परिचय पाकर मोदी ने एक छोटा-सा पुराना चिथड़ा बाहर और गाँठ खोलकर उसमें से दो सोने की बालियाँ और पाँच रुपये निकाले। उन्हें मेरे हाथ में देकर वह बोला, 'बहू ये दो बालियाँ मुझे इकतीस रुपये में बेचकर शाहजी का समस्त ऋण चुकाकर, चली गयी हैं। किन्तु कहाँ गयी हैं सो नहीं मालूम।' इतना कहकर वह किसका कितना ऋण था इसका हिसाब बतलाकर बोला, 'जाते समय बहू के हाथ में कुल साढ़े पाँच आने पैसे थे।' अर्थात् बाईस पैसे लेकर उस निरुपाय निराश्रय स्त्री ने संसार के सुदुर्गम पथ में अकेले यात्रा कर दी है! ...और पढ़े

4

श्रीकांत - भाग 4

मनुष्य के भीतर की वस्तु को पहिचान कर उसके न्याय-विचार का भार अन्तर्यामी भगवान के ऊपर न छोड़कर मनुष्य स्वयं उसे अपने ही ऊपर लेकर कहता है 'मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, यह कार्य मेरे द्वारा कदापि न होता, वह काम तो मैं मर जाने पर भी न करता', आदि- तब ये बातें सुनकर मुझे शर्म आए बिना नहीं रहती। और फिर केवल अपने मन के ही सम्बन्ध में नहीं, दूसरों के सम्बन्ध में भी, मैं देखता हूँ, कि मनुष्य के अहंकार का मानो अन्त ही नहीं, है। ...और पढ़े

5

श्रीकांत - भाग 5

इस अभागे जीवन के जिस अध्याय को, उस दिन राजलक्ष्मी के निकट अन्तिम बिदा के समय ऑंखों के जल समाप्त करके आया था- यह खयाल ही नहीं किया था कि उसके छिन्न सूत्र पुन: जोड़ने के लिए मेरी पुकार होगी। परन्तु पुकार जब सचमुच हुई, तब समझा कि विस्मय और संकोच चाहे जितना हो, पर इस आह्नान को शिरोधार्य किये बिना काम नहीं चल सकता। इसीलिए, आज फिर मैं अपने इस भ्रष्ट जीवन की विशृंखलित घटनाओं की सैकड़ों जगह से छिन्न-भिन्न हुई ग्रन्थियों को फिर एक बार बाँधने के लिए प्रवृत्त हो रहा हूँ। ...और पढ़े

6

श्रीकांत - भाग 6

उस दिन फिर मेरा जी न चाहा कि नीचे जाऊँ, इसलिए, नन्द और टगर के युद्ध का अन्त किस हुआ- सन्धि-पत्र में कौन-कौन-सी शर्तें निश्चित हुईं, सो मैं कुछ नहीं जान पाया। परन्तु, बाद में देखा कि शर्तें चाहे जो हों, विपत्ति के समय वह 'स्कैप ऑफ पेपर' (कागज का रद्दी टुकड़ा) किसी काम नहीं आता। जब जिसे जरूरत होती है, खिलवाड़ की तरह उसे फाड़ फेंकता है और दूसरे का ब्यूह भेद कर डालता है। बीस बरस से ये दोनों यही करते आए हैं तथा और भी बीस बरस तक ऐसा न करते रहेंगे, इसकी शपथ स्वयं विधाता भी नहीं ले सकेंगे। ...और पढ़े

7

श्रीकांत - भाग 7

रास्ते में जिन लोगों के सुख-दु:ख में हिस्सा बँटाता हुआ मैं इस परदेश में आकर उपस्थित हुआ था, घटना-चक्र वे तो रह गये शहर के एक छोर पर और मुझे आश्रय मिला शहर के दूसरे छोर पर। इसलिए, इन पन्द्रह-सोलह दिनों के बीच उस ओर जा न सका। इसके सिवाय, सारे दिन नौकरी की उम्मीदवारी में घूमते इतना थक जाता था कि शाम के कुछ पहले वास-स्थान पर लौटने पर इतनी शक्ति ही नहीं बचती थी कि मैं कहीं भी बाहर जाऊँ। ...और पढ़े

8

श्रीकांत - भाग 8

एकाएक अभया दरवाजा खोलकर आ खड़ी हुई बोली, 'जन्म-जन्मान्तर के अन्ध संस्कार के धक्के से पहले पहल अपने सँम्हाल न सकी, इसीलिए मैं भाग खड़ी हुई थी श्रीकान्त बाबू, उसे आप मेरी सचमुच की लज्जा मत समझना।' उसके साहस को देखकर मैं अवाक् हो गया। वह बोली, 'आपको अपने डेरे को लौटने में आज कुछ देरी हो जायेगी, क्योंकि रोहिणी बाबू आते ही होंगे। आज हम दोनों ही आपके आसामी हैं। आपके विचार में यदि हम लोग अपराधी सुबूत हों, तो जो दण्ड आप देंगे उसे हम मंजूर करेंगे।' ...और पढ़े

9

श्रीकांत - भाग 9

कलकत्ते के घाट पर जहाज जा भिड़ा देखा, जेटी के ऊपर बंकू खड़ा है। वह सीढ़ी से चटपट ऊपर आया और जमीन पर सिर टेक प्रणाम करके बोला, 'माँ रास्ते पर गाड़ी में राह देख रही हैं। आप नीचे जाइए, मैं सामान लेकर पीछे आता हूँ।' बाहर आते ही और भी एक आदमी झुककर पैर छूकर खड़ा हो गया। मैंने कहा, 'अरे रतन कहो, अच्छे तो हो?' रतन कुछ हँसकर बोला, 'आपके आशीर्वाद से। आइए।' यह कहकर उसने रास्ता दिखाते हुए गाड़ी के समीप लाकर दरवाजा खोल दिया। ...और पढ़े

10

श्रीकांत - भाग 10

एक दिन जिस भ्रमण-कहानी के बीच ही में अकस्मात् यवनिका डालकर बिदा ले चुका था, उसको फिर किसी दिन ही हाथ से उद्धाटित करने की प्रवृत्ति मुझमें नहीं थी। मेरे गाँव के जो बाबा थे वे जब मेरे उस नाटकीय कथन के उत्तर में सिर्फ जरा-सा मुसकराकर रह गये, और राजलक्ष्मी के जमीन से लगाकर प्रणाम करने पर, जिस ढंग से हड़बड़ाकर, दो कदम पीछे हटकर बोले, 'ऐसी बात है क्या? अहा, अच्छा हुआ, अच्छा हुआ,- जीते रहो, खुश रहो!' और फिर डॉक्टर को साथ लेकर बाहर चले गये, ...और पढ़े

11

श्रीकांत - भाग 11

साधुजी खुशी से चले गये। उनकी विहार-व्यथा ने रतन को कैसा सताया, यह उससे नहीं पूछा गया, सम्भवत: वह कुछ सांघातिक न होगी। और एक व्यक्ति को मैंने रोते-रोते कमरे में घुसते देखा अब तीसरा व्यक्ति रह गया मैं। उस आदमी के साथ पूरे चौबीस घण्टे की भी मेरी घनिष्ठता न थी, फिर भी मुझे ऐसा मालूम होने लगा मानो हमारी इस अनारब्ध गृहस्थी में वह एक बड़ा-सा छिद्र कर गया है। और जाते वक्त यह भी न बता गया कि आखिर यह अनिष्ट अपने आप ही ठीक हो जायेगा या स्वयं वही, फिर एक दिन इसी तरह अकस्मात् अपनी दवाओं की भारी पेटी लादे, इसे मरम्मत करने सशरीर आ पहुँचेगा। और मुझे स्वयं कोई भारी उद्वेग हो रहा हो, सो नहीं। ...और पढ़े

12

श्रीकांत - भाग 12

अपने आपको विश्लेषण करने बैठता हूँ, तो देखता हूँ, जिन थोड़े-से नारी-चरित्रों ने मेरे मन पर रेखा अंकित की उनमें से एक है वही कुशारी महाशय के छोटे भाई की विद्रोहिनी बहू सुनन्दा। अपने इस सुदीर्घ जीवन में सुनन्दा को मैं आज तक नहीं भूला हूँ। राजलक्ष्मी मनुष्य को इतनी जल्दी और इतनी आसानी से अपना ले सकती है कि सुनन्दा ने यदि उस दिन मुझे 'भइया' कहकर पुकारा, तो उसमें आश्चर्य करने की कोई बात ही नहीं। अन्यथा, ऐसी आश्चर्यजनक लड़की को जानने का मौका मुझे कभी न मिलता। ...और पढ़े

13

श्रीकांत - भाग 13

मनुष्य की परलोक की चिन्ता में शायद पराई चिन्ता के लिए कोई स्थान नहीं। नहीं तो, मेरे खाने-पहरने की राजलक्ष्मी छोड़ बैठी, इतना बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या हो सकता है? इस गंगामाटी में आए ही कितने दिन हुए होंगे, इन्हीं कुछ दिनों में सहसा वह कितनी दूर हट गयी! अब मेरे खाने के बारे में पूछने आता है रसोइया और मुझे खिलाने बैठता है रतन। एक हिसाब से तो जान बची, पहले की सी जिद्दा-जिद्दी अब नहीं होती। कमजोरी की हालत में अब ग्यारह बजे के भीतर न खाने से बुखार नहीं आता। ...और पढ़े

14

श्रीकांत - भाग 14

संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। ...और पढ़े

15

श्रीकांत - भाग 15

अब तक का मेरा जीवन एक उपग्रह की तरह ही बीता, जिसको केन्द्र बनाकर घूमता रहा हूँ उसके निकट न तो मिला पहुँचने का अधिकार और न मिली दूर जाने की अनुमति। अधीन नहीं हूँ, लेकिन अपने को स्वाधीन कहने की शक्ति भी मुझमें नहीं। काशी से लौटती हुई ट्रेन में बैठा हुआ बार-बार यही सोच रहा था। सोच रहा था कि मेरी ही किस्मत में बार-बार यह क्यों घटित होता है? मरते दम तक अपना कहने लायक क्या किसी को भी न पा सकूँगा? क्या इसी तरह जिन्दगी काट दूँगा? बचपन की याद आई। ...और पढ़े

16

श्रीकांत - भाग 16

इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मनुष्य को सदुपदेश देने से कोई फायदा नहीं होता- सत्-परामर्श कोई जरा भी ध्या न नहीं देता। लेकिन चूँकि यह सत्य है, इसलिए दैवात् इसका व्यतिक्रम भी होता है। इसकी एक घटना सुनाता हूँ। बाबा ने दाँत निकालकर आशीर्वाद दिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया। पूँटू ने भी बहुत सारी पद-धूलि लेकर आदेश का पालन किया। पर उनके चले जाने के बाद मेरे परिताप की सीमा न रही। मन विद्रोही होकर सिर्फ तिरस्कार करने लगा कि ये कौन होते हैं जिन्हें विदेश में नौकरी कर अनेक कष्टों से संचित किया हुआ धन दे दोगे? ...और पढ़े

17

श्रीकांत - भाग 17

वैष्णवी ने आज मुझसे बार-बार शपथ करा ली कि उसका पूर्व विवरण सुनकर मैं घृणा नहीं करूँगा। 'सुनना मैं नहीं, पर अगर सुनूँ तो घृणा न करूँगा।' वैष्णवी ने सवाल किया, 'पर क्यों नहीं करोगे? सुनकर औरत-मर्द सब ही तो घृणा करते हैं।' 'मैं नहीं जानता कि तुम क्या कहोगी, तो भी अन्दाज लगा सकता हूँ। यह जानता हूँ कि उसे सुनकर औरतें ही औरतों से सबसे ज्यादा घृणा करती हैं, और इसका कारण भी जानता हूँ, पर तुम्हें वह नहीं बताना चाहता। ...और पढ़े

18

श्रीकांत - भाग 18

आज बे-वक्त कलकत्ते पहुँचने के लिए निकल पड़ा। उसके बाद इससे भी ज्यादा दुखमय है बर्मा का निर्वासन। वहाँ लौटकर आने का शायद समय भी न होगा और प्रयोजन भी न होगा। शायद यह जाना ही अन्तिम जाना हो। गिनकर देखा, दस दिन बाकी हैं। दस दिन जीवन के लिहाज कितने से हैं! तथापि, मन में संदेह नहीं रहा कि दस दिन पहले जो यहाँ आया था और आज जो बिदा लेकर जा रहा है, दोनों एक नहीं हैं। ...और पढ़े

19

श्रीकांत - भाग 19

दूसरे दिन मेरी अनिच्छा के कारण जाना न हुआ किन्तु उसके अगले दिन किसी प्रकार भी न अटका सका मुरारीपुर के अखाड़े के लिए रवाना होना पड़ा। जिसके बिना एक कदम भी चलना मुश्किल है वह राजलक्ष्मी का वाहन रतन तो साथ चला ही, पर रसोईघर की दाई लालू की माँ भी साथ चली। कुछ जरुरी चीजें लेकर रतन सबेरे की गाड़ी से रवाना हो गया है। वहाँ पहुँचकर वह स्टेशन पर पहले ही से दो घोड़ागाड़ियाँ ठीक कर रक्खेगा। हम लोगों के साथ जो सामान बाँध गया है वह भी तो कम नहीं है। ...और पढ़े

20

श्रीकांत - भाग 20

एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, 'बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।' रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, 'देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।' ...और पढ़े

अन्य रसप्रद विकल्प