बहुरुपिए

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बहुरूपिये दोनों कुलियों ने माथे पर लदे माल—असबाब उतारे और गमछे से अपने—अपने चेहरे का पसीना पोंछने लगे, ‘‘बड़ा जानलेवा उमस है, बाबू साहिब !'' बाबूजी मुझे देखते ही हड़बड़ा कर उठे और खरगोश की रफ्रतार से मेरी ओर लगभग कुलाँचते हुए लपके । जब उनके चरण—स्पर्श करने की खातिर श्र(ानत होकर उनकी तरपफ झुका, तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया । भावातिरेक में उनकी आँखें छलछला आयीं । मेरी नजरें उनके चेहरे को पढ़ने की भरसक कोशिश करने लगीं । वाकई कितनी बूढ़ी हो गयी थीं उनकी पनीली आँखें ! पहले मैं कभी भूलकर भी बाबूजी के चेहरे की तरपफ