126==== ============== वह रात पहली रात से भी अधिक दम घोंटने वाली थी | कुछ समझने जैसा था ही नहीं, किसी के साथ कुछ साझा करना भी खुद मेरे जैसी स्वाभिमानी, प्रौढ़ा, अपने निर्णय की स्वयं निर्णायक के लिए अपना स्वयं का मज़ाक बनाने वाली बात थी | न जाने मैंने कितनी झपकी ली होंगी लेकिन रबर के आदमी का हाथ मेरी ओर बढ़ते देख मैंने फिर से मोटे तकिए घसीटकर बीच में एक पुल खींच लिया | डिम रोशनी अब भी कमरे में थी | मैंने करवट ली और देखा कि प्रमेश की बेशर्म दीदी की आँखें मसहरी की