डर से भी बड़ा..डरखड़ खड़--खड़ खड़..ट्रेन द्रुत गति से भागी चली जा रही थी।संध्या काल का समय था, तेज बारिश और बीच बीच मे बिजली की चमक वातानुकूलित कोच की खिड़कियों से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी। केबिन का एकांत और यह भयावह मौसम मुझ जैसे डरपोक आदमी को और डरा रहा था। थोड़ी देर बाद गाड़ी के पहियों की रफ़्तार कम हुई और एक मध्यम से स्टेशन पर गाड़ी रुकी।बारिश इतनी ज्यादा थी कि मैं स्टेशन का नाम नहीं पढ़ पा रहा था।मैं अपने केबिन मे अकेला था और इस उधेड़बुन मे था की कोई सह यात्री आये,