प्रेम गली अति साँकरी - 115

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115 --- =============== मन बीहड़ बन में घूम रहा था| क्या और कैसे करूँ, कैसे संभालूँ इस शादी को? मैंने देखा है, महसूस भी किया है प्रेमी जोड़ों की मुहब्बत को जो डूबे रहते हैं, मैं क्यों नहीं कोई उत्साह महसूस कर रही थी उत्साह? क्या मैं एक ऐसी नदी सी बन रही थी जिसके बहाव को पत्थर रोक लेते हैं और नदी की कलकल ध्वनि अचानक बंद हो जाती है| पत्थरों की आड़ से बनाती हुई वह न जाने कितनी पीड़ा झेलती हुई तरलता, सरलता से बहने के स्थान पर घायल होती हुई शिथिलता से आगे बढ़ती है|  प्रमेश