प्रेम की पराकाष्ठा

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अंततः मेरे सामने वह शख्सियत खडी़ थी जिसकी तलाश उसे पिछले १०वर्षों से थी.उसने अपनीतलाश में कोई कसर नहीं छोड़ी थी पर आज उम्मीदों के बुझ जाने के बाद फिर से जाग जाना किसीचमत्कार से कम नहीं था. मैंने चुपचाप अपने बैग से एक पुरानी डायरी निकाली और उसमें रखीतस्वीर से सामने बैठे पुरुष के चेहरे का मिलान करने लगी. एक-एक अक्स, एक-एक कटाव, हू-ब-हू वही था. कुछ देर तक मुझे यकीन नहीं हुआ. सचमुच वही अर्थपूर्ण आंखें, मौन हुए होंठ औरएक ईश्वरीय मुस्कान. हाँ एक अंतर जरूर था--पुरानी तस्वीर की आँखों में जो,शरारत के साथ जोभोलापन था अब वह