चारों ओर नीरव सन्नाटा था। आसपास से हल्की किंतु बोझिल बातचीत का मंद सा स्वर कभी - कभी आ जाता था। सलाखों के बाहर संतरी के भारी बूटों का स्वर रिगसता - घिसटता उसके दांतों को चुभता था। सीमेंट के फर्श पर रेत के बारीक कण उसके जूतों से कुचले जाते थे न! कोठरी के भीतर वह अकेला ही था। अपने इस रूप की शायद उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। लेकिन जो कुछ था, जैसा था,जैसे हुआ था उसने उसे कमज़ोर घायल नहीं बल्कि और मज़बूत संतुलित बना छोड़ा था। कोठरी की दीवार के सिरे पर एक