"साहब का अफ़सोस" बात उन दिनों की है जब हमारे देश में अंग्रेज़ों का आगमन हो चुका था। शहरों पर तो उनका आधिपत्य हो ही चुका था, गांव भी उनकी चकाचौंध से अछूते नहीं रहे थे। वे लोग साम दाम दण्ड भेद अपना वर्चस्व विभिन्न समुदायों पर कायम कर ही लेते थे। कहीं कहीं लोग उनसे घृणा भी करते थे, अतः उनके बहकावे में न आने के लिए एक दूसरे को सतर्क करते थे पर कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने देश की गरीबी और हताशा से ऊब चुके थे, और अंग्रेज़ों के क्रिया कलाप को ललचाई नज़रों से