तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि?

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कई वर्ष बाद मेरा दुष्यंत से सामना हुआ था। मुझे आश्चर्य हुआ कि अब उसके प्रति मेरे मन में कुछ नहीं था। न प्यार न नफ़रत। मेरे मन ने इस कदर पराया कर दिया था उसे, कि कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि वह पास आ बैठे या दूर खड़ा रहे, जबकि पहले ऐसा नहीं था। पहले तो उसकी छोटी-से-छोटी बात से भी मुझें फ़र्क पड़ता था। उस तक पहुंचाने वाली सीढ़ियों से उतरने के बाद मैं भारी मन से जिन्दगी की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी थी। वर्षो लगे थे उसे भूलने में जबकि वह विवाह करके अपनी गृहस्थी में रम