रामचरितमानस 1 हिन्दी के विस्तार में मानस का योगदान निज भाषा उन्नति ऊहे सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।। उन्नति पूरी है तबहि जब घर की उन्नति होय। निज शरीर उन्नति किए रहत मूढ़़ सब कोय।। करहु विलम्ब न भ्रात अब उठहु मिटावहु सूल। निज भाषा उन्नति करहु प्रथम जो सब को मूल।। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ये पक्तियाँ जब जब मेरे मानस में आतीं हैं। मन हिन्दी की दुर्दशा देखकर बेचैन हो उठता है। सम्भव है भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इन पक्तियों की