1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की - 4 - अंतिम भाग

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1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की प्रियंवद (4) चश्मे वाला कुछ नही बोला। उसने केक का पैकेट लपेट कर मेज पर रख दिया। उसके चेहरे पर थकान और उदासी थी। ऊब और वितृष्णा भी थी। घृणा की छाँह भी थी। घृणा किसके लिए थी, साफ नही था। ‘‘मेरा काम खत्म हो चुका है। मैं जाना चाहता हूँ‘‘ वह टूटी आवाज में बोला,,,इस हद तक टूटी कि लगा शायद वह रो देगा। कंबल वाले ने उसकी वितृष्णा देखी। शायद घृणा भी। वह धीरे से बोला। ‘‘मैं मज़हबी नहीं हूँ‘‘ ‘मुझे पता है। मज़हबी होते तो लाश उठाने और