ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' नज़र बनाम नज़र मेट्रो में यात्रा करने के दौरान कोट की जेब में हाथ डाला तो बस की एक पुरानी टिकट हाथ में आ गई. मैंने उस टिकट को हाथ में लिया और कुछ देर बाद इस बात का ध्यान रखते हुए कि कोई देख तो नहीं रहा, उस टिकट को नीचे फर्श पर फेंक दिया. अगले स्टेशन पर एक नवयुवक एक बैग लेकर मेट्रो में चढ़ा. बैठने की कोई सीट न होने के कारण वह मेरे पास ही खड़ा हो गया. बैग को उसने अपने पैरों के पास टिका दिया था. फिर उस