मृगतृष्णा--भाग(२)

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विभूति नाथ स्वयं ही अपने हृदय की ब्याकुलता को नहीं समझ पा रहा था,सब कुछ होते हुए भी उसके पास कुछ भी नहीं था, उसे अपना जीवन ब्यर्थ सा प्रतीत हो रहा था, उसके मस्तिष्क में विचारों का आवागमन बहुत ही तीव्र गति से हो रहा था,उसकी इन्द्रियां स्वयं उसके प्रश्नों का उत्तर चाहती थीं, परंतु उसका उत्तर पाने वो ,किसके समक्ष जाए,उसका मस्तिष्क और हृदय उस समय दिशाविहीन था। प्रात:काल का समय था,सूर्य की हल्की हल्की लालिमा धीरे धीरे चहुं ओर पसरने लगी थी, पंक्षियो ने भी अपने कोटर छोड़ दिए थे,मयूर नृत्य कर रहे थे,जगह जगह से वन्य