फिर आना अखिलेश और हंसना...

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फिर आना अखिलेश और हंसना जोर-जोर से...# चण्डीदत्त शुक्लपंखा हिल रहा था। खट-खट की आवाज़ें आतीं पर हवा नहीं। हिचकोले खाता मैं। ठंडी, और ठंडी होती जा रही पीठ के नीचे की ज़मीन और माथा पसीने से तर-ब-तर। बल्कि सारा जिस्म ही भीगा हुआ। दिल धड़कता तेज़-तेज़ और उसी रफ्तार से और, और ज्यादा हिलने लगता बदन। सामने की बर्थ पर तीन छोटे बच्चे रो रहे थे…मां डांटती तो सुबकने लगते और मौका मिलते ही चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगते। अजब मौसम था। फरवरी के आख़िरी दिन। बाहर जाती हुई ठंड थी। डिब्बे में उमस। मिला-जुला मौसम। दमघोंटू पर पंखा बंद था।