अफ़सोस! सद् अफसोस...कि तुम बेवफा हुए

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अफ़सोस! सद् अफसोस...कि तुम बेवफा हुए मेरी आंतरिक बाहों में आज भी तुम भरे पड़े हो। बिल्कुल अमौन-शहनाईयों की तरह। बिल्कुल विझंकृत-रूबाईयों की तरह। मगर ये विछोह-नुमा क्षण भी एक विमोहक-स्पर्श दे जाते हैं। जैसे अभी-अभी कुछेक देर में तुम वापस आ जाओगे। नेपथ्य में जाती हूँ तो पाती हूँ एक भरा-पूरा आकाश।...स्वप्निल-आंकाक्षाओं की हरित-कोपलों से आच्छादित बेला,गुलाब,मालती की नैसर्गिक सुगन्ध। मैं गुलदाउदी के फुलों से लदी टहनी मात्र, जिसे समय की गर्म हवाओं ने अलबत्ता छू-छू कर झुलसा डाला है कलान्तर में। तुमने कहा था, चौथी रात को आओगे। और ये कि चौथा युग हो गया।...किन्तु हाँ....न मैं बुझी,