मैंने जैसे ही लेटने के लिए बेटी को एक ओर बिस्तर पर खिसकाना चाहा, कि उसी क्षण अभय लड़खड़ाते हुए कमरे में दाखिल हुआ। उसे देखते ही मेरे अंदर भरा गुस्से का लावा बाहर फूट पड़ा। मैं घायल शेरनी की तरह उस पर टूट पड़ी। उसके शर्ट के कॉलर को पकड़ कर मैं लगभग लटक गयी। वह कितना भी नशे में था। लेकिन एक पुरूष और एक स्त्री की ताकत में अन्तर होता है। उसने अपने दोनों हाथों से छुड़ाकर मुझको फर्श पर फेंक दिया। उसके बाद भी मैं दौड़कर उससे लिपटकर नोचने लगी। बार-बार मैं एक ही शब्द दोहरा रही थी कि तुम औरत के दलाल हो। तुमको मैं अपना पति कहूं - छिः ... छिः ...।