उसके बाद तो उन घर की चाभियों ने तो मेरी जिन्दगी ही बदल दी। अब मैं बेटी से बहू बनने के इस दौर से गुजर रही थी। जहां पर स्त्री को मानसिक और शारीरिक अनेकों झंझावतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन इन सबके बाद भी अपने परिवार और कुल की परम्पराओं और जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना पड़ता है। फिर तो शादी के बाद मैं मात्र एकबार अपने अम्मा-पिताजी के घर गांव जा पायी। अम्मा भी मेरी जिम्मेदारियों को समझते हुए मुझे गावं बुलाने की जिद नहीं करती थीं। उनको पता था कि मेरी बेटी ससुराल में अकेली है इस लिए उसका रहना वहां अधिक जरूरी है। अगर सास या ननद होती तो बात ही और होती। जिम्मेदारियां थोड़ी-बहुत तो बंट ही जातीं। यही सब सोचकर मां ने भी समय से समझौता कर लिया था। मेरी क्या? मैं तो अब ससुराल की होकर रह गयी। लेकिन मेरा मन अब पति और ससुरजी की सेवा तथा घर के कामकाज में रमने लगा था। मेरी तो बस ससुराल ही दुनिया थी।