निहाल सिंह को बहुत ही उलझन हो रही थी। स्याह-व-सफ़ैद और पत्ली मूंछों का एक गुच्छा अपने मुँह में चूसते हुए वो बराबर दो ढाई घंटे से अपने जवान बेटे बहादुर की बाबत सोच रहा था। निहाल सिंह की अधेड़ मगर तेज़ आँखों के सामने वो खुला मैदान था जिस पर वो बचपन में बंटों से कबड्डी तक तमाम खेल खेल चुका था। किसी ज़माने में वो गांव का सब से निडर और जियाला जवान था।