हज्ज-ए-अकबर

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इम्तियाज़ और सग़ीर की शादी हुई तो शहर भर में धूम मच गई। आतिश बाज़ियों का रिवाज बाक़ी नहीं रहा था मगर दूल्हे के बाप ने इस पुरानी अय्याशी पर बे-दरेग़ रुपया सर्फ़ किया। जब सग़ीर ज़ेवरों से लदे फंदे सफ़ैद बुर्राक़ घोड़े पर सवार था, तो उस के चारों तरफ़ अनार छूट रहे थे। महताबियाँ अपने रंग बिरंग शोले बिखेर रही थीं। पटाख़े फूट रहे थे। सग़ीर ख़ुश था। बहुत ख़ुश कि उस की शादी इम्तियाज़ से तय पा गई थी जिस से उस को बेपनाह मुहब्बत थी।