प्रेम की पराकाष्ठा

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"प्रेम" एक भाव जिसकी व्याख्या की तो जाती है परंतु लेखनी अथवा वक्तव्य से प्रेम को पूर्ण परिभाषित करना असंभव है। प्रेम तो वह बह्मांड है जिसमें अनेकों भाव, अनेकों अनुभव छण समाते जा रहे है। यह तो जल की वह धारा है जिसका उद्गम तो अवगत है परंतु इसके कोई अंत नही। प्रेमी इसी अद्वितीय भाव के प्रकट होने पर जब प्रेम उनके जीवन में उतरने लगता है तब धीरे धीरे जीवन के अन्य सम्बंधों, अन्य भावों से वह दोनों परिचित होने लगते है यह तभी सम्भव है जब विशुद्ध प्रेम उनके अन्तःकरण में जाग्रत है। किसी से प्रेम