‘‘सलोनी!’’ किवाड़ तो बन्द थे..., अन्दर कैसे घुस गई...! मैंने ही किये थे इन्हीं हथेलियों से .... तुम रोई थी... छटपटाई थी.... तड़फ कर कितना कुछ कह रही थी... आकुल तुम्हारी हिरनी आँखों की याचना... ‘‘...मुझे नहीं सुननी कोयल की कूक... जंगल की हिरनी से बहुत बहुत डर जाती हूँ.... बसंत की अमराई... फूलों की मादक गंध, भौंरो का गुनगुन फूलों पर बैठना, चूसना रस... फूल फूल पर इतराते इठलाते यह कमबख्त बसंत आता ही क्यों है, इस रेत के शहर में...’’ रचना बुदाबुदा रही है किससे बातें कर रही है - अपने आप से... अपने भीतर की उस रचना से जिसने सलोनी के जाने पर खुद को कई कोणों से सजा दी थी...