काँटों से खींच कर ये आँचल - 3

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“रेगिस्तान में उगे किसी कैक्टस की ही भांति मेरा जीवन शुष्क और कंटीला है. संभल कर रहना अनुभा कहीं मेरे कांटे तुम्हें भी जख्मी ना कर दें”, इन्होने कहा तो मैं चौंक गयी कि कैक्टस पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है. वे बोल रहे थें और मैं सोच रही थी कि इससे पहले किसने मुझसे इतनी आत्मीयता से बात किया होगा. उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और विनीत हो कह उठे, “मेरी बिखरी गृहस्थी को समेट लो, मैं अब थक गया हूँ तुम अब संभाल लो. सुलभा के जाने के बाद मैंने अपना तबादला उस जगह से करा लिया. नहीं थी मुझमें इतनी हिम्मत कि लोगो के सवालों के जवाब दूँ”