तक़ी कातिब

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लखनऊ और वली के जाहिल और ख़ुद सर क़ातिबों से मेरा जी जला हुआ था। एक था उस को जा व बेजा पेश डालने की बुरी आदत थी। मौत को मूत और सोत को सूत बना देता था। मैंने बहुत समझाया मगर वो न समझा। उसको अपने अहल-ए-ज़बान होने का बहुत ज़ोअम था। मैंने जब भी उस को पेश के मुआमला में टोका उस ने अपनी दाढ़ी को ताव दे कर कहा। “मैं अहल-ए-ज़बान हूँ साहब....... इसके तीस सिपारों का हाफ़िज़ हूँ। एराब के मुआमला में आप मुझ से कुछ नहीं कह सकते।”