चौदहवीं का चाँद

  • 8.6k
  • 3
  • 2.1k

अक्सर लोगों का तर्ज़-ए-ज़िंदगी, उन के हालात पर मुनहसिर होता है। और बाअज़ बे-कार अपनी तक़दीर का रोना रोते हैं। हालाँकि इस से हासिल-वुसूल कुछ भी नहीं होता। वो समझते हैं अगर हालात बेहतर होते तो वो ज़रूर दुनिया में कुछ कर दिखाते। बेशतर ऐसे भी हैं जो मजबूरियों के बाइस क़िस्मत पर शाकिर रहते हैं। उन की ज़िंदगी उन ट्राम कारों की तरह है जो हमेशा एक ही पटरी पर चलती रहती हैं। जब कंडम हो जाती हैं तो उन्हें महज़ लोहा समझ कर किसी कबाड़ी के पास फ़रोख़्त कर दिया जाता है।