आम

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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उस की इज़्ज़त करते थे। हर महीने पैंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो इस का काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपय उस को अपनी तीस साला ख़िदमात के इवज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे। हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।