कामेश्वर ने दरवाजा खटखटाया, ‘’ठक्क....ठक्क....!’’ ............द्वार खुलते ही अवाक्य रह गया,…….ओंठ खुले के खुले रह गये। सामने हंसीन हुस्न की हूर, मुस्कुराती कलियॉं बिखेर रही है। सूरत पर रौनक झिलमिला रही है, ऑंखों में खुमार उमड़ रहा है, खुली बिखरी जुल्फों में काली घटाऍं घुमड़ रही हैं। महीन दिलकश सुरूरी आवाज ओंठों की कमान से निकली, पलक झपकते दिल में जा धंसी......ऊ ! आह फूट पड़ी, ‘’जी.....!’’ ‘’दल्ली है !’’ कामेश्वर की चेतना लौटी। ‘’.....कामेश्वर सर.......।‘’ ‘’हॉं ! तुम.....?’’ ‘’रति !’’ उसने अत्यन्त आत्मियता पूर्वक मृदु वाणी में बताया, ‘’दल्ली ने वैट करने का कहा है।‘’ रति ने अन्दर आने हेतु इशारा किया। रति अपनी लचकदार देह लहराते हुये अन्दर मुड़ गई, ‘’बैठिए !’’ रति ने कनखियों से कामेश्वर को देखा, ‘’दल्ली आ जायेगा।‘’
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अँगड़ाईयॉं - 1
उपन्यास भाग—१ अँगड़ाईयॉं– १ आर. एन. सुनगरया, कामेश्वर ने दरवाजा खटखटाया, ‘’ठक्क....ठक्क....!’’ ............द्वार खुलते ही अवाक्य रह गया,…….ओंठ ...और पढ़े
अँगड़ाईयॉं - 2
उपन्यास भाग—२ अँगड़ाईयॉं– २ आर. एन. सुनगरया, कामेश्वर हाट-बाजार का जायजा लेता, घूमता-घामता, ढूँढ़ता-ढॉंढ़ता, खोजता-खाजता, तलाश करता पहुँच ही गया रति के डेरे पर। वहॉं चार युवतियॉं सजी-संवरी, हंसी-ठिठोली, हंसती-खिल-खिलाती, ठहाके लगाती, एक-दूसरे के साथ लिपट-लिपट कर उधम-मस्ति करती, तितलियों की ...और पढ़े