गोरबन्द

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रुणक-झुणक....रुणक-झुणक की दूर से आती आवाज़ ने नारायण को उनीन्दे से जगा दिया नारायण उचक कर बिस्तर पर बैठ गया और उसने अपने बिस्तर के जीवणे हाथ वाली खिड़की के लकड़ी के नक्काशीदार पल्लों पर टिकी सांकल को खोल दिया । चूं..चप्प...चूं...की आवाज़ के साथ लकड़ी के पल्ले खुले तो सुबह की फागुनी बयार का एक टुकड़ा भर उसके चेहरे को छूने के लिये काफी था । परदादा जी की बनाई खूबसूरत हवेली के वास्तु शिल्प से पगे झरोखे को दुनिया दर्शन के लिये धन्यवाद देता कि इससे पहले ही रुणक-झुणक की आवाज़ नज़दीक से और नज़दीक आ चुकी थी ।