Dukham Sharanam Gachchhami

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दुक्खम्‌ शरणम गच्छामि! धीरेन्द्र अस्थाना अंधेरा पूरा था और सन्नाटा संगदिल। उस विशाल कैफे के ठंडे हॉल में मेरे कदम इस तरह पड़े जैसे आश्चर्य लोक में एलिस। हॉल सिरे से खाली था और मैं निपट अकेला। उढ़के हुए शानदार दरवाजे को खोल कर भीतर आने पर सबसे पहला सामना काउंटर के ऊपर वाली दीवार पर टंगी घड़ी से हुआ। सुबह के चार बजकर बीस मिनट हो रहे थे। घड़ी के ठीक ऊपर एक मर्करी बल्ब जल रहा था, सिर्फ घड़ी के लिए। लगभग बर्फ हो चुकी उंगलियों को एक दूसरे से लगातार भिड़ाकर उन्हें गर्म करने के निष्फल प्रयत्न