Bauncer

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लगता है इस शहर से जल्दी ही नाता टूटने वाला है। हालांकि तीन-चार महीने में इस शहर से कोई रिश्ता बन भी कहां पाया है। यह सोचते ही गोपी को यह शहर अचानक बड़ा आत्मीय लगने लगा। वह कई बार सोचता था कि मौका निकालकर घूमने जाएगा। दिन भर लाल किले में भटकेगा, पुराने किले में नाव का मजा लेगा, कुतुबमीनार पर चढ़ेगा, प्रगति मैदान में मेला देखेगा पर मौका कहां मिला। बस चांदनी चौक में जलेबी खाने के अलावा कुछ और कहां कर पाया वह। कमबख्त नौकरी के चक्कर में समय ही कहां मिल पाता है। लेकिन अब तो लग रहा है यह नौकरी भी उससे नहीं हो पाएगी।