बोहनी

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उस दिन जब मेरे मकान के सामने सड़क की दूसरी तरफ एक पान की दुकान खुली तो मैं बाग-बाग हो उठा। इधर एक फर्लांग तक पान की कोई दुकान न थी और मुझे सड़क के मोड़ तक कई चक्कर करने पड़ते थे। कभी वहां कई-कई मिनट तक दुकान के सामने खड़ा रहना पड़ता था। चौराहा है, गाहकों की हरदम भीड़ रहती है। यह इन्तजार मुझको बहुत बुरा लगता थां पान की लत मुझे कब पड़ी, और कैसे पड़ी, यह तो अब याद नहीं आता लेकिन अगर कोई बना-बनाकर गिलौरियां देता जाय तो शायद मैं कभी इन्कार न करूं। आमदनी का बड़ा हिस्सा नहीं तो छोटा हिस्सा जरूर पान की भेंट चढ़ जाता है। कई बार इरादा किया कि पानदान खरीद लूं लेकिन पानदान खरीदना कोई खला जी का घर नहीं और फिर मेरे लिए तो हाथी खरीदने से किसी तरह कम नहीं है। और मान लो जान पर खेलकर एक बार खरीद लूं तो पानदान कोई परी की थैली तो नहीं कि इधर इच्छा हुई और गिलोरियां निकल पड़ीं।