दास्ताँ -ए-जुगनूँ

  • 3.7k
  • 1.1k

शायद मनुष्य का हठीला स्वभाव ही है जिसके चलते प्रदीप और शारदा दोनों को ही यह स्वीकार करने के दिक्कत का सामना करना पड़ा कि पिछले कुछ सालों वे टूटे-बिखरें हुए उस सामान की तरह दिखाई देने लगा हैं, जिनके बदन का गोश्त यहाँ-वहाँ से बाकायदा थमक गया हो। नियति में विश्वास करने वाले लोग इन दोनों के घायल जीवन को शायद इनके दुर्भाग्य से जोड़ कर देखे या फिर प्रेम को महज़ एक मायावी प्रपंच समझने वाले दुनियादार लोग इन्हें खुद के हाल पर ही छोड़ कर यह भ्रम पालें रहे कि देर-सवेर बच्चुओं को खुद-ब-खुद अकल आ जाएगी.