कहानी मानसी धीरेन्द्र अस्थाना मानसी! मानसी! मानसी! बहुत शोर था मानसी का। चार एक हजार मकानों वाली उस मध्यवर्गीय कॉलोनी का खंभा—खंभा जैसे मानसी के अस्तित्व से रोमांचित हो, स्तब्ध खड़ा था। जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन कमाल यह कि सारी बातें या तो मानसी की प्रशस्ति में, या मानसी की भर्त्सना में। जैसे मानसी न होती, तो लोगों की वाक्शक्ति बिला जाती और घरों में मनहूसियत छा जाती। जवान लड़कों के दिनों को उजड़ने से और स्त्रियों को आपस में टकराने से मानो मानसी ने ही रोका हुआ था। सुबह, दोपहर, शाम औरतों में एक ही चर्चा रहती... मानसी