प्रथम अध्याय पंचमहल और गिर्द स्थली, अब कब होगी गुल्जार। कई दिनौं से प्रकृति यहां की,करती रही विचवार।। विनपानी बेचैन पशु-जन,खग कुल आकुल होते। डीम-डिमारे खेत यहां के,विन पानी के रोते।।1।। बहैं अनूठी वयार यहां,पतझड़ का गहरा साया। पर्वत के प्रस्तर खण्डों से,गहन ताप ही पाया।। कोयल, कीर, पपीहा यहां पर,मन से कभी न गाते। लगता, इनके जन्म भूमि से,रहे न कोई नाते।।2।। राजा-कृषक, श्रमिक सब ही का,एक पाबस आधार। पावस, मावस-सी अंधियारी,कैसे – कब ? उद्धार।। जीव जन्तु, तृण , द्रुमादिक,सबका जीवन पानी। बिन पानी, हरियाली गायब,सब धरती अकुलानी।।3।। प्रकृति जानती है, जीवों के,सब जीवन का राज। कहो कबै