मशरूफियत मशरूफियत इस कदर होगयी हैँ जैसे कभी मैं वो थी ही नहीं अपनों के बिच रह कर खुद को तन्हा पाया अकेलेपन को अपना दोस्त बना लिया खुद को मशरूफ रख खुद मे खुशियां ढूंढ़ने लगी पास सब थे, फिर भी एक खालीपन सा था बात करने के लिए मेरा एक आईना था क्यों सुनु किसी की, क्यों करू किसी की परवा दिखावाये की जिंदगी क्यू हैँ जीनी एक ख्वाहिश थी, जो कभी पूरी हुयी ही नहीं एक साथ ही तो माँगा था पर यह बोल कर दूर कर दिया गया मेरे पास वक़्त नहीं आज मेरे पास वक़्त नहीं तो क्या गलत किया तुम्हे सही करते करते खुद को भूलती गईं खुद मे जब कुछ बन