ये 1994 की गर्मियों की बात है। आठवीं की परीक्षाएं खत्म हो चुकी थीं और जून की तपती दोपहरियों में दिन भर सिर्फ खेलने, आम खाने और मौज करने का अनवरत सिलसिला चल रहा था। तभी एक दिन अचानक दोपहर में वो हादसा हुआ। खेल के बीच दौड़कर हाजत निपटाने पहुंची तो देखा कि जांघिया सुर्ख लाल हो रखा है। फ्रॉक में भी खून लग गया था। डर के मारे मेरे पैर वहीं जम गए। मुझे लगा कि मुझे कैंसर जैसी कोई बीमारी हो गई है और अब मैं बस मरने वाली हूं।मां उस वक्त घर पर नहीं थीं। पापा