वाजिद हुसैन सिद्दीक़ी की कहानीवह मेरा घनिष्ट मित्र था। मौजमस्ती और झूठी शान के लिए धन व्यर्थ करना उसका स्वभाव था जिससे उसका परिवार त्रस्त था। एक दिन वह मुझसे मिला। उसने रूधें गले से कहा, 'मैं जा रहा हूं, पता नहीं फिर मुलाक़ात हो या न हो।' 'क्यों?' मैंने पूछा। 'परिवार ने मुझे ज़िन्दगी और जायदाद से बेदखल कर दिया है।' 'कहॉ जाओगे?' 'पता नहीं।' यह सुनकर मेरी आंखें छल्छला गई। कई वर्ष बाद मैं मुंबई के एक पाश एरिया से गुज़र रहा था। वह एक बंगले के बाहर खड़ा