शून्य से शून्य तक - भाग 34

  • 618
  • 192

34=== आशी पन्नों पर पन्ने रंगती जा रही थी, अपने प्यार की स्मृति में वह कभी भी रो लेती, यह खुद उसके लिए भी आश्चर्यजनक था ! उसने खुद ही तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी या यह कह लें कि ज़िंदगी जो भी खेल खिलाती है, इंसान को खेलना ही पड़ता है | जब चीज़ें हाथ से फिसल जाती हैं तब उन्हें पकड़ना या थाम लेना कहाँ आसान होता है?  मौन के बाद कभी समय मिलने पर सुहास ने कई बार आशी से कहा था कि भगवन् हमेशा कहते थे कि कुछ न करो, मौन रहकर जीवन के