शून्य से शून्य तक - भाग 12

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12=== दीनानाथ के सामने जब बीते हुए कल की परछाइयाँ घूमने लगती हैं तब वह अपने आप भी उन परछाइयों का एक टुकड़ा बन जाते हैं| टुकड़ों में बँटा हुआ जीवन, मजबूरी की साँसों को भरता हुआ उनका मन और शरीर मानो बिखरने लगता है| टूटने और बिखरने के क्रम में उनकी इच्छाशक्ति भी कमजोर होती जाती है| इतनी कमजोर कि उन्हें महसूस होता है कि उनकी साँस किसी कमज़ोर धागे से बँधी नहीं बल्कि अटकी हुई है--ज़रा सा छुआ भर नहीं कि छिटककर विलीन हो जाएगी और पहुँच जाएंगे अपनी सोनी के पास! पर कर्तव्य के मार्ग से हटकर