प्रदीप श्रीवास्तव वह साँवली सी बमुश्किल पंद्रह-सोलह वर्ष की रही होगी। यही कोई पाँच फुट उसकी ऊँचाई थी। पहले लम्बे कोरोना लॉक-डाऊन के बाद ऑफ़िस जाते-आते समय उसे रोज़ पॉलिटेक्निक वाले चौराहे पर भीख माँगते देखता था। चेहरे पर पीड़ा दुख की गहन छाया के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से उसकी मासूमियत भी बनी हुई थी, वह खोई नहीं थी। उस चौराहे पर तीन-चार साल के बच्चों से लेकर प्रौढ़ महिलाएँ तक, क़रीब दो-ढाई दर्जन भिखारी हर आने-जाने वाले के सामने हाथ फैला कर, भीख के लिए गिड़गिड़ाते मिलते हैं। लॉक-डाऊन के बाद उनमें से बहुत से चेहरे वहाँ मुझे नहीं