वंश - भाग 5

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पाँच गर्मी की उमस भरी दोपहर थी, लेकिन गाड़ी के चलते रहने के कारण हवा भी लग रही थी। असहनीय उष्णता तो नहीं ही थी। मीलों दूर तक फैले हुए पर्वतीय एवं मैदानी बीहड़ों के बाद इस लाइन पर कुछ इलाका ऐसा भी आता था जिसे न तो जंगल ही कहा जा सकता है और न पहाड़, पठार ही। आबादी बस्ती तो खैर ये है ही नहीं। हाँ बीच-बीच में इक्का-दुक्का आदिवासियों की बसाहटें बेशक दिख जाती हैं। कहीं-कहीं मुश्किल से उग पायी फसल को लिये उदास खड़े पितलिया खेत-खलिहान, पर ज़्यादातर बंजर पथरीली चट्टानों के ऊबड़-खाबड़ टीले ही। रेल