श्री धर्मराज

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भगवान् सूर्य की पत्नी संज्ञा से आपका प्रादुर्भाव हुआ है। आप कल्पान्त तक संयमनीपुरी में रहकर जीवों को उनके कर्मानुसार शुभाशुभ फल का विधान करते रहते हैं। ये पुण्यात्मा लोगों को धर्मराज के रूप में बड़े सौम्य और पापात्मा जीवों को यमराज;के रूप;में भयंकर दीखते हैं। जैसे अशुद्ध सोने को शुद्ध करने के लिये अग्नि में तपाते हैं, वैसे ही आप कृपावश जीवों को दण्ड देकर, उन्हें शुद्धकर भगवद्भजन के योग्य बनाते हैं। भगवान्‌ के मंगलमय नाम की महिमा का वर्णन करते हुए श्रीधर्मराज जी अपने दूतों से कहते हैं कि— नामोच्चारणमाहात्म्यं हरेः पश्यत पुत्रकाः। अजामिलोऽपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत॥ एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां