साथिया - 58

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*अक्षत का रूम* अक्षत आँखे बन्द किये सोफे पर बैठा हुआ था। " दिन गुजर रहे बैचैनियों में...!! रातें तेरी यादों के सहारे...!! यूं तो जीत लिया जग सारा पर..! हम आखिर खुद से ही हारे..!! न आहट है न तेरा निशां कोई..! फिर भी उम्मीद है कि टूटती नही..!! जानता कि तुम नही हो मगर..! इंतजार की ये लत छूटती नही..!! कोई तो इशारा कोई तो खबर दे मुझे..! भीड़ दुनियाँ की बहुत कहाँ ढूंढूँ तुझे..!!" निर्मोही इस कदर भूल के तु मुझे...! चैन मिलता है भला कैसे मेरे बिन तुझे..!! "मिसेज चतुर्वेदी...! कहाँ हो आप...?? आ जाओ न