वें चले तो गए लेकिन उनके अल्फ़ाज़ तीर के तरह मेरे सीने में चुभ गए,उस रात मैं रातभर सो ना सकी और यही सोचती रही कि मेरा नाच और गाना सुनने तो लोग ना जाने कहाँ कहाँ से आते हैं और उन हजरत को ना मेरा गाना भाया और ना ही मेरा नाच,आखिर उनकी नजरों में मेरी कोई कीमत नहीं जो वें इस तरह से मेरी बेइज्ज़ती करके चले गए.... दूसरे दिन भी मेरा मन इतना खराब रहा कि मैंने उस रात महफ़िल ही नहीं सजाई और गुलबदन खाला से कह दिया कि..... "खाला! मैं आज ना तो नाचूँगी और