दो बूंद जिंदगी

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न जाने कब से मैं पत्थर की एक बड़ी सी शिलापट पर लेटा हुआ आसमान की ओर देखता रहा, थकन की वजह से सारा शरीर खुद भी एक पत्थर के समान हों गया। कब नींद आ गई और कब आधी रात हो गई, ठीक आधी रात को आंख खुलने पर मैने लेटे लेटे अपने आस पास देखा किसी को भी अपने पास न देख, कुछ शब्द बदाबदाहट मे बदल गए,,, आखिर कौन होगा मेरे पास, क्या लगता हूं मैं किसी का,,,। और मैने किसी तरह से अपने थके हुए शरीर को समेटा। धीरे धीरे खुद को शिलापट से उतारा, आधी