इतनी बेचैनी, इतनी घबराहट शायद ही कभी वर्तिका को हुई थी जितनी आज हो रही थी। रह रह कर घड़ी देखना, कभी माथे पे लटकती लटो को कान के पीछे करना तो कभी अपने कुर्ते को ठीक करना, बस स्टॉप पे खड़ी हुई वर्तिका को कोई भी देख कर कह सकता था की वो बिलकुल भी ठीक नहीं है। बस स्टॉप के दूसरी साइड खड़ी एक आंटी तब से वर्तिका को देख रही थी जब उनसे ना रहा गया तब उन्होंने जाके वर्तिका से बात करनी चाही... " क्या बात है बेटा? बहुत परेशान लग रही हो? सब तुम्हें ही