सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 7

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सत्संग की महिमा तुकाराम महाराज ने पाखंडी, दंभी दिखावटी धर्मध्वजियों और अपने बड़प्पन के लिये शास्त्रार्थ करते-फिरने वाले 'पंडितों' की जिस प्रकार अवहेलना की है, उसी प्रकार स्थान-स्थान पर सत्संग की महिमा भी गाई है। उन्होंने कहा–वराग्याचे भाग्य संत-संग हाचि लाभ। संत कृपेचे हे दीप, करी साधका निष्पाप ।। अर्थात्– “वैराग्य का सबसे बड़ा सौभाग्य सत्संग की प्राप्ति ही है। संत कृपा का यह दीपक साधक को निष्पाप बना देता है।” जिसका जैसा स्वभाव होता है उसे वैसे ही व्यक्तियों की संगत में आनंद आता है। व्यसनों में फँसे लोग अपने ही समान व्यसनी लोगों से संपर्क रखते हैं। धार्मिक