रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - अंतिम भाग

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(14) रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय और फलस्तुति* पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि॥सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥3॥ भावार्थ:-जो आपने मुझ से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजी के मन को प्रिय लगने वाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है॥3॥ * देखु गरु़ड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥4॥ भावार्थ:-हे गरुड़जी! अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री रामजी के भजन का अधिकारी हूँ? पक्षियों में सबसे नीच