एक योगी की आत्मकथा - 25

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{ भाई अनन्त एवं बहन नलिनी }“अनन्त अब अधिक दिन जीवित नहीं रह सकता; इस जन्म के लिये उसके कर्मों का भोग पूरा हो चुका है।”एक दिन प्रातःकाल जब मैं गहन ध्यान में बैठा हुआ था, तो मेरी अन्तर्चेतना में ये निष्ठुर शब्द उभर आये। संन्यास लेने के थोड़े ही दिन बाद मैं अपने जन्मस्थान गोरखपुर में अपने बड़े भाई अनन्त के घर गया हुआ था। अचानक अस्वस्थ होकर अनन्त दा ने बिस्तर पकड़ लिया था। मैं आत्मीयता के साथ उनकी सेवा में जुट गया।अन्तर में उठी इस सत्यनिष्ठ घोषणा से मैं दुःखी हो उठा। मुझे लगा कि अपनी असहाय